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एक दिन


एक दिन

एक दिन अपने से ही 
एक दिन अपने से ही 
परेशान हताश 
उठ कर ना जाने मैं कहाँ चल दिया
चलते चलते .. जब थक सा गया 
एक पेड़ के निचे बैठ 
सुस्ता कर सो सा गया 
स्वप्न में मैं  यूँ खो सा गया 
अचानक एक आवाज आई 
मेरे भीतर बैठ था कोई 
वो मुझे जगा रहा था 
अपने समीप वो मुझे बुला रहा था 
कह रहा था 
तुझे और अब चलना है 
उन  पहड़ों के पीछे कुछ छिपा है तेरा 
उसे खोजना है तुझे 
और तू सो रहा है 
उठ अन्दर  से अपने और चल पड 
उन पहाड़ों की खोज पर  
जब तक  तो उसे खोज ना ले तू 
एक दिन अपने से ही 

बालकृष्ण डी. ध्यानी


 

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