लाटौं बल मि
क्य छौं? पजल-5
गढ़वाल
जनु दानि नी
लाठि बगैर मानि नी
खस्या किरात कि कानी
राठि को क्वी सान्नि नी
खसोपि तुष्टिका मुष्टिका
रुष्टिका प्राण घातिका
तबल खस्या यनु रुसाल
जनु बल दुधा कु उमाल
भावार्थ
फलाणा (अमुक) उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले के पौराणिक तपोवन स्थली की अपनी भूमिका
स्वरूप पहेली के प्रथम चरण में अपनी बात को कहावत अनुसार आगे बढ़ाते हुए कहता है कि
बल गढ़वाल (तथाकथित लाट यानी राट/राठ क्षेत्र) जैसा दानी नहीं, यानी तथाकथित तपोवन
में खस्या किरात जनजाति के लोगों के हरे भरे बुग्याली (पठारी) खरकों (पशुधनों के आउटडोर
कैम्पों) और छान्नियों (गौशालाओं) में भैसों के दूध घी दही छांछ की कोई कमी नहीं होती
थी, जो तपस्वियों के जप तप हेतु बहुत उपयोगी जगह होती थी, क्योंकि तथाकथित क्षेत्र
में खाने के लिए जंगली कंदमूलों और धूनी रमाने हेतु लकड़ियों की कोई कमी नहीं होती
थी, और क्षेत्र के लोग खूब दानी दाता भी हुआ करते थे, मगर लाठि बगैर मानी नहीं, यानी
तथाकथित क्षेत्र के राठी लोग दानी के साथ कर्मठ भी होते थे, वे सोचते थे कि और लोगों
के दो पैर होते हैं, मगर उनका तीसरा पैर लाठी होता है, जो अतिरिक्त सहारे, बोझ को कम
करने हेतु, आत्मरक्षा हेतु, हल के लाट के रूप में बहुउपयोगी होता है, तो बल खस्या
किरात (तथाकथित क्षेत्र की पौराणिक जनजाति) की कहानी, राठि (तथाकथित क्षेत्र विशेष
का रैबासी होने से प्रचलित नाम से राठी) का कोई सान्नि नहीं, यानी मेहनत मशक्कत, सीधेपन,
बहादुरी से लेकर दानी दाता होने के चलते राठी लोगों की कोई भी बराबरी नहीं कर सकता
है। अमुक अपनी बात को पुनः आगे बढ़ाते हुए कहता है कि बल तथाकथित क्षेत्र के राठी
लोग दानी दाता तो होते ही हैं, मगर घातक गुस्सेबाज भी होतें हैं, तो बल खसोपि तुष्टिका
मुष्टिका, यानी खस्या राजपूत अगर सामने वाले के व्यवहार से संतुष्ट है, तो अन्न की
मुठ्ठी दान दे देगा, और रुष्टिका प्राण घातिका, यानी अगर रुष्ट/नाराज हो गया, तो उसका
घूसा प्राणघातक भी सिद्ध हो सकता है, तो बल खस्या ऐसा रुसाल (गुस्सेबाज), जैसा बल दुध
का उमाल, यानी गुस्सा कब आकर अपने आप शांत भी हो जाए।
पांडवों
सणि उपदेश
द्यावो ऋषि लोमेश
हिमालै जातरा मा
ध्यावो बल हल्को भेष
जोगि का सिरमा जट्टम
नांगि शरीर मा मट्टम
धारु कमर मा मौजी
हाथ मा दंड कमंडलम
भावार्थ
अमुक भ्रामकता के मकड़जाल में फंसाते हुए पहेली के भ्रामक दूसरे चरण में अपनी बात को
आगे बढ़ाते हुए कहता है कि बल पांडवों को उपदेश, देवे ऋषि लोमेश (रामकथा सुनाने वाला
सिद्धहस्त वक्ताओं में से एक जिसके शरीर पर रोएं होने से ऐसा नाम पड़ा, कहते हैं कि
लोमश ऋषि ने सौ साल तक कमल अर्पित कर शिव की अराधना की थी फलस्वरूप उन्हें वरदान मे
ला थी कालांतर में उनके बाल का कोई भी बांका नहीं कर सकेगा, वे पांडवों के मार्गदर्शक
के लिए भी जाने जाते हैं), कि बल हिमालय की जातरा (यात्रा) में, ध्यावो (ध्यान में
रखें) बल हल्को भेष (हलका-फुलका परिधान), तो बल जोगी के सिर में जट्टम (जूटजट्टा),
वह नांगे शरीर में मट्टम (राख का लेप), धारण करे कमर में मौजी (मूंज यानी सरकंडे के
रेशे से बुना मेखला यानी कमर में बांधने वाली कमरबंद/करधनी), हाथ में दंड (दंडिका/लाठी)
कमंडलम (भिक्षापात्र कमंडल), यानी 'तपोवन में जितने कम कपड़े, तो उतने ही कम लफड़े,
जो बल मुसीबत में, काम आएं तगड़े'।
बल बिंडि
खाणा बाना
जो बल जोगी ह्वाया
त बल पैलि ही बासा
भूखा प्यासा राया
जोगिन वख बैठण चुट्ट
जख्बटे क्वैनिबोलु उट्ठ
ढ़ोंगिन वख मांगण चुट्ट
जख्बटे ह्वावु लुटालुट
भावार्थ
अमुक भ्रामकता के मकड़जाल से बाहर निकाल कर वेबसाइट स्वरूप पहेली के ज्ञानमयी तीसरे
चरण में अपनी बात को संवेदनात्मक एवं भावनात्मक स्वरूप आगे बढ़ाते हुए कहता है कि बल
बिंडि (ज्यादा) खाने के बाना (बहाने), जो बल जोगी हुआ, तो बल पहली ही बासा (रात), भूखा-प्यासा
रहा, तो बल जोगी ने वहीं पर बैठना है चुट्ट (चुपचाप), जख बटे (जहां से) कोई नहीं बोले
उट्ठ, यानी संत जोगी महात्माओं का चरित्र ऐसा बेदाग होना चाहिए कि कोई उनपर उंगली नहीं
उठा सके। और जोगी के भेष में सिर्फ मांग कर खाने वाले ढ़ोंगी ने वहीं मांगना चुट्ट
(चुपचाप), जहां से होवे लुटालुट, यानी 'जहां क्षीरसागर के अमृत की मची हो लूट, तो वहां
असुर भी सुर के भेष में छक जाते हैं अमृत की घूंट'।
खस्या प्यावु
भैंसौ दुद
त ख्वावु अपणू सुदबुद
खस्या को खस्या ह्वाया
त खपकै खपक खाया
बामणुं लाणो बाणो
बल बांजो ही ह्वाणो
ठांठौं बल मि ठाठ छौं
लाटौं बल मि क्य छौं?
भावार्थ
अमुक पहेली के चौथे अंतिम निर्णायक चरण में अपनी संरचनात्मक विशेषताओं का बखान करते
हुए आगे कहता है कि बल खस्या पिये भैंस का दुद (दूध), तो खोये अपनी सुदबुद, यानी खस्या
राजपूत ज्यादा दूध घी मखन छांछ की प्राप्ति हेतु गाय के मुकाबले भैंस को ज्यादा वरीयता
देता है, और क्योंकि घास पानी प्रचुर मात्रा में खूंटे पर ही उपलब्ध होता है, तो राठी
को मेहनत की चिंता नहीं होती है, मेहनत तो उसकी रग रग में समाई हुई रहती है, तो कहावत
के अनुसार कि बल खस्या के खस्या हुए, यानी सीधे-साधे मेहनती राजपूतों के बच्चे भी सीधे-साधे
मेहनती ही हुए, तो खपकै खपक यानी कष्ट ही कष्ट खाएं, और बल ब्राह्मणों का लाणो-बाणो
(खेतीबाड़ी), बल बांजो (बंजर) ही ह्वाणो (होना), यानी बामन देवताओं का काम तथाकथित
राजपूतों की दान दक्षिणा भिक्षा पर चलने की वजह से उनकी खेतीबाड़ी अनउपजाऊ ही रहती
थी। अंत में अमुक अपनी बात को पहेली के अनुसार प्रश्नात्मक शैली में कहता और पूछता
है कि ठांठौं (पगड़ीदार इज्जतदार लोगों) के लिए बल वह (अमुक) ठाठ (ऐशोआराम की जगह)
है, तो बताओ कि तथाकथित लाटौं (सीधे-साधे मेहनती कर्मठ बहुउपयोगी तीसरे पैर यानी लाठी
वाले राठियों) के लिए बल वह क्या है?
जगमोहन
सिंह रावत 'जगमोरा'
प्रथम गढ़गीतिकाव्य पजलकार
मोबाइल नंबर-9810762253
नोट:-
पजल का उत्तर एक शातिर चित्तचोर की तरह अपनी ओपन निशानदेही के साथ छंदबद्ध स्वरूप पजल
में ही अंतर्निहित तौर पर छिपा हुआ होता है
नोट:- पजल का उत्तर एक शातिर चित्तचोर की तरह अपनी ओपन निशानदेही के चैलेंज के साथ छंदबद्ध स्वरूप पजल में ही अंतर्निहित तौर पर छिपा हुआ होता है
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