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तिलवाड़ौ जंवै बल मि क्य छौं? पजल-11 जगमोहन सिंह रावत 'जगमोरा'. GARHWALI PUZZLE

 


तिलवाड़ौ जंवै बल मि क्य छौं?

पजल-11 जगमोहन सिंह रावत 'जगमोरा'.

GARHWALI PUZZLE

बल तपसी दुर्गा देवि  का

तपमा बल शेर जन लीन

लपसी अन्नपुर्णा देवि का

भोगम सवसेर अन्न जीम

तबल दुयुंकी अपणी बड़ै

शुरु  ह्वैगी  आपसी  लड़ै

ता ग्यूं जौतिल समा धान

करु नारद बल समाधान

 

भावार्थ

अलाणा-फलाणा (अमुक) जवाड़ी  (रुद्रप्रयाग जिले में अमुक के नाम से परिभाषित सुप्रसिद्ध गाँव) के गौ आदिम (गाय जैसे भोले आदमी) और तिलवाड़ा (रुद्रप्रयाग जिले के तिल की खेती के नाम से परिभाषित सुप्रसिद्ध गाँव) के दामाद की भूमिका स्वरूप अपनी बात को पहेली के प्रथम चरण में आगे बढ़ाते हुए कहता है कि बल तपसी (जपतप करने वाला तपस्वी) दुर्गा देवि के तप में बल शेर जैसा लीन (तल्लीन/ध्यानमग्न), तो लपसी (जौ के पकवान बनाने वाला लपस्वी) अन्नपुर्णा देवि के, भोग में सवासेर अन्न जीम (देवी को अर्पण करे), तो बल दोनों की अपनी बढ़ाई, शुरु हो गई आपसी लड़ाई, तो बल गेहूं जौ तिल समा धान, करे नारद बल समस्या का समाधान।

 

तपसी सवा करोड़  चीमि

अन्नपूर्णा की फबसी  खा

लपसी सवा सेर जीमि

सवासेर जवी लपसी खा

वैकी पुंगड़ि वैका हि  जौ

उजड्या बल्द खूब खैलौ

भैजी गंगाजि का छन जौ

मोल सौ जौ बकसीस सौ

 

भावार्थ

अमुक भ्रामकता के मकड़जाल में फंसाते हुए अपनी बात को पहेली के भ्रामक दूसरे चरण में आगे बढ़ाते हुए कहता है कि बल नारद मुनि ने, जब तपसी अपने तप में और लपसी देवी का भोग बनाने में ध्यानमग्न थे, तो दोनों के सामने एक-एक करोड़ रुपये का सोने का छल्ला रख दिया, तो जैसे ही तपसी की नजर सवा करोड़ के सोने पर पड़ी, तो उसने लालच में चीमि (उठाकर) अपने नीचे रख दिया, तो अन्नपूर्णा नाराजगी में कहे कि सोना नहीं वह लालची चोर तपस्वी, अन्नपूर्णा की फबसी (फेफड़े) खाए, और लपस्वी जो देवी का भोग बनाने में ध्यानमग्न था, उसका सोने के छल्ले की ओर ध्यान नहीं गया, तो बल लपसी सवा सेर जीमि (अन्नपूर्णा देवी को भोग जिमाए), तो अन्नपूर्णा देवी आशीर्वाद देते हुए कहे कि लपसी सवासेर जवी (जौ की) लपसी (पकवान) खाए, यानी नौरात्रों में अन्नपूर्णा देवी को जौ की लपसी का भोग लगाने वाले भक्त का अन्न भंडार हमेशा भरा रहता है। अमुक अपनी बात को पुनः आगे बढ़ाते हुए कहता है कि बल वैकी (लपसी) की पुंगड़ि (खेत), उसी के ही जौ, तो बल उजड्या बल्द (अनधिकृत चरने वाले बैल अधिकार स्वरूप) खूब खैलौ (फसल खा काट), यानी अन्नपूर्णा देवी के आशीर्वाद से लपसी के खेतों में जौ की प्रचुर मात्रा में पैदावार होने के चलतेलपसी अपने बैलों से कहे कि खूब छक लो, ताकि इस बहाने फसल की कटाई के साथ-साथ मंडाई भी हो जाएगी, तो बल भैजी गंगा जी के हैं जौ, यानी जौ दान पुण्य हवन यज्ञ में ही ज्यादा खपते हैं, क्योंकि हिसाब के मामले में मोल सौ जौ बकसीस सौ, यानी जौ और दमड़ी की कीमत बराबर है, यानी जौकी सौ बालियों का दान, सौ सोने की दमड़ी के दान के बराबर है, यानी जौ सोने के भाव दुल्हन के सोलह शृंगार से सुशोभित है।

 

कांजी  ओट्सै   भानुमती

जौ की मती असमान  चा

ताचा अत्ती जौ बल खत्ती

सत्तू  दूध  का  समान  चा

बल जौ खत्येणमा जयंती

नि हुंद बल धान बासमती

मुलाजै  मौ  ढुंगा  मा  जौ

जांदरो निचा किनिचा जौ

 

भावार्थ

अमुक भ्रामकता के मकड़जाल से बाहर निकाल कर वेबसाइट स्वरूप पहेली के ज्ञानमयी तीसरे चरण में अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहता है कि बल कांजी  (जौ सुरा) ओट्सै (जौ के आटे) की भानुमती (अन्नपूर्णा का पिटारा), जौ श्रीमती असमान है, यानी जौ की सेवा भाव श्रेयस्कर है, वह अमुक 'श्री', यानी तीन देवियों के आशीर्वाद से फलीभूत है, सरस्वती ज्ञान बुद्धिमत्ता का, तो शक्ति निरोगता का और लक्ष्मी देवी धनधान्य से अपने भक्तों को  आशीर्वादित करती हैं, तो चाहे अत्ती जौ बल खत्ती, यानी जौ की अधिकता में हर संस्कार और हर कर्मकांड परिपूर्ण होते हैं, तो सत्तू बल दूध के समान (पौष्टिक) है। अमुक अपनी बात को पुनः आगे बढ़ाते हुए कहता है कि बल जौ के खत्येण (गिरने/बिखरने) में जयंती (जौ की हरियाली, जो नौरात्रों में सौभाग्य सूचक घर दहलीज के द्वार के ऊपर औरभक्तजनों के सिर पर सुभाशीष स्वरूप फलित होती है), नहीं होती बल धान बासमती, यानी जौ के बिखरने पर जौ ही पैदा होता है, धान नहीं पैदा होता, यानी श्रेयस्कर दान पुण्य करने से श्री श्रेष्ठता ही मिलती है, यानी जौ अन्नों में श्रेयस्करहै, क्योंकि मुखमुलाजै मौ (मुंह के लिहाज की तारीफ से) ढुंगा (पत्थर) में जौ, यानी जौसर्वत्र उपलब्ध होते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि जौ पत्थर में भी पैदा होते हैं, क्योंकि हर कंकर में शंकर और कणकण में राम ही परिपूर्णता प्राप्त करते हैं, तो बल जांदरो (हाथ की चक्की) नहीं है कि नहीं हैं जौ, यानी जब जौ और चक्की दोनों ही उपलब्ध हैं, तोकिस बात की देरी? तुरंत पीसो और खाओ, यानी तुरंत दान, महा कल्याण।

 

धरम  सूत्र  बौधायन   मा

यवमंत्र पढ़णौ विधान चा

रुक्षाष्णो वशंजो यवन मा

औषधीय   समाधान   चा

ग्युं सोलसिंगर्या जौ  रासी

ग्युंखै कख जवै मिठगासी

जवाड़ी को बल मि गौ छौं

तिलवाड़ौं जंवै बल क्यछौं?

 

भावार्थ

अमुक पहेली के चौथे अंतिम निर्णायक चरण में अपनी संरचनात्मक विशेषताओं का बखान करते हुए आगे कहता है कि बल धर्म सूत्र बौधायन में, यवमंत्र (जौ मंत्र- हे यव! तू धान्यों में सबका राजा है, तू मधु से सिक्त यानी सिंचित है, तरुण के लिए सबसे बड़े देवता के समान पवित्र है, तुझे ऋषियों ने पाप नाशक और पवित्र बनाया है) पढ़ने का विधान है, वस्तुतः अमुक 'रुक्षाष्णो वशंजो यवन', यानी जौ कई कसाध्य रोगों जैसे कफ पित्त वात त्वचा रोग, मूत्र रोग में औषधीय समाधान है, तो स्वस्थ तन स्वस्थ मन के चलते भक्तजन गेहूं सोलसिंगर्या (सोलह शृंगार से सुशोभित दुल्हन) सी जौ की रासी (पसंदीदा राशि) है, तो बल गेहूं खाके कहां जवै (जौ की) मिठगासी (मीठा निवाला)?, यानी गेहूं के स्वाद के सामने जौ की कोई बिसात नहीं है, यानी गेंहू और जौ एक जैसे सुंदरता से परिपूर्ण दिखाई देतें है, तो गेहूं के खेतों की मुंडेर में जौ की बालियां खुद जीव जानवरों का निवाला बनकर गेहूं की सुरक्षा में बलिदान हो जाती हैं। अमुक अंत में पहेली के अनुसार प्रश्नात्मक शैली में कहता और पूछता है कि तथाकथित जवाड़ी (रुद्रप्रयाग के गाँव) का बल वह गौ (गाय जैसा भोला-भाला) है, तो बताओ कि तथाकथित तिलवाड़ा (रुद्रप्रयाग का एक गाँव जो तिल की खेती के नाम से परिभाषित है) का जंवै (जंवाई /दामाद राजा) बल वह क्या है?

 

जगमोहन सिंह रावत 'जगमोरा'

प्रथम गढ़गीतिकाव्य पजलकार

मोबाइल नंबर-9810762253

नोट:- पजल का उत्तर एक शातिर चित्तचोर की तरह अपनी ओपन निशानदेही के चैलेंज के साथ छंदबद्ध स्वरूप पजल में ही अंतर्निहित तौर पर छिपा हुआ होता है

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