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कंडारौ बल मि क्य छौं? PUZZLE-25 JAGMOHAN SINGH RAWAT 'JAGMORA''. GARHWALI PUZZLE


कंडारौ बल मि क्य छौं?

PUZZLE-25

JAGMOHAN SINGH RAWAT 'JAGMORA''.

 GARHWALI PUZZLE

जु  भंडारी  द्यावो  नि 

ज्यू खोलि  भंडार  से

त वु  दानी  दाता  नि 

रज्जा  गौं  कंडार  से

जु कंडारी  ह्वावो  नि

गुसाईं    कंडार     से

त वु गोदियालुं तैं  नि

सारु  कंधा  भार   से

भावार्थ

अलाणा-फलाणा (अमुक) कंडारा गाँव (उत्तराखंड जिला रुद्रप्रयाग स्थित एक सुप्रसिद्ध बड़े गाँव, पौराणिक कंडारा गढ़ी) के परिवेश में, जो अपने कुल पुरोहितों के वशंज गोदियालों को, जहां वे बसते थे, अपने साथ कंधे में उठाकर ले जाते थे (कंधे/कंडे में कुल पुरोहितों का उठाकर ले जाने के कारण ही उनका नाम कंधारी/कंडारी पड़ा), अपनी भूमिका स्वरूप पहेली के प्रथम चरण में अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहता है कि बल जो भंडारी (कंडारा गढ़ी के राजा के दैनिक सामुहिक भंडारे हेतु अन्न के भंडार की व्यवस्था संभालने वाले/गाँव में शादी विवाह व अन्य सामुहिक भोज में भंडारगृह का व्यवस्थापक) देवे नहीं, ज्यू खोलकर भंडार से, तो वह दानी दाता नहीं, रज्जा (राजा के गढ़) गाँव कंडार से, और जो कंडारी होए नहीं, गुसाईं कंडार से, तो वह गोदियालों को नहीं, सारे (उठाकर एक जगह से दूसरी जगह ले जाए) कंधे के भार से। 


बल साधु द्यखदो  भौ

अर  बैरि  द्यखदो  दौ

इलै  जु   भंडरी   हुंदौ

वु अन्न सब्यूं  तैं  दिंदौ

जु प्यासु बल गोर  ह्वा

खुनौ प्यासु जोंक  ह्वा

दीण  वलुं  सगोर   ह्वा

मंगण वलुं भूक स्वाहा

भावार्थ

अमुक भ्रामकता के मकड़जाल में फंसाते हुए पहेली के भ्रामक दूसरे चरण में अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहता है कि जहां भंडारी का भंडारगृह दिल खोलकर खुला हो, तो‌ वहां साधु संतों का जमावड़ा लगेगा ही, तो बल साधु देखता है भौ (सेवा भाव), और बैरी/दुश्मन देखता है दौ (दाव/भंडारगृह को कब्जाने का सही मौका), इसलिए जो भंडरी (भंडार का व्यवस्थापक) होता है, वह अन्न सभी को देता है। अमुक अपनी बात को पुनः आगे बढ़ाते हुए कहता है कि बल जो प्यासा बल गोर (जानवर) हो, तो खून का प्यासा जोंक हो, यानी ज्यादा भूखे-प्यासे अधीते जानवर पर जोंक चिपटकर खून चूस लेती है, और जो देने वालों का सगोर (सलीका) हो, तो मांगने वालों की भूख स्वाहा (अंतर्ध्यान हो जाती है), यानी देने वाला सबसे बड़े भंडारगृह का संस्थापक खुद भगवान है, तो भूखे की भूख भक्तिभाव में अंतर्ध्यान हो ही जाती है। 


थोकदार   दयळु   ‌ ह्वा

त  वै  का  घार   शंकर

थोक म खै यखळु  ह्वा

त  वै  का  घार    शुंगर

यो विश्वमित्र वो  वशिष्ठ

रज्जा बलिष्ठ गुरु वरिष्ठ

धिकबलम् क्षत्रियबलम्

ब्रह्म तेजो बलम्  बलम्

भावार्थ

अमुक भ्रामकता के मकड़जाल से बाहर निकाल कर वेबसाइट स्वरूप पहेली के ज्ञानमयी तीसरे चरण में संवेदनात्मक एवं भावनात्मक स्वरूप अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहता है कि बल थोकदार (प्रधान सेवक) दयालु होए, तो उसके घर शंकर, और थोक में खाकर यखळु (अकेला) होए, तो उसके घर शुंगर, यानी सुअरों के घर सुअर ही पैदा होते हैं। अमुक पुनः अपनी बात को राजा विश्वमित्र और गुरु वशिष्ठ के एक प्रसंग के आधार पर आगे बढ़ाते हुए कहता है कि बल यह विश्वमित्र वह वशिष्ठ, राजा बलिष्ठ (सबसे बलवान) गुरु वरिष्ठ (सर्वश्रेष्ठ), तो बल 'धिकबलम् क्षत्रियबलम्', ब्रह्म तेजो बलम् बलम्', यानी क्षत्रिय बल तुच्छ है, सर्वश्रेष्ठ बल तो ब्रह्मतेज ही है (विश्वमित्र एक क्षत्रिय प्रतापी राजा थे। बल में उनके समान दूसरा उस समय न था। एक दिन राजा विश्वामित्र शिकार खेलते-खेलते वशिष्ठ मुनि के आश्रम में जा पहुँचे। मुनि ने राजा का समुचित आतिथ्य-सत्कार किया और अपने आश्रम की सारी व्यवस्था उन्हें दिखाई। राजा ने नन्दिनी नामक उस गाय को भी देखा, जिसकी प्रशंसा दूर-दूर तक हो रही थी। यह गाय प्रचुर मात्रा में अमृत के समान गुणकारी दूध तो देती ही थी, साथ ही उसमें और भी दिव्य गुण थे, जिस स्थान पर वह रहती वहाँ देवता निवास करते और किसी बात का घाटा न रहता। राजा विश्वामित्र का मन इस गाय को लेने के लिए ललचाने लगा। उन्होंने अपनी इच्छा मुनि के सामने प्रकट की पर उन्होंने मना कर दिया। राजा ने बहुत समझाया और बहुत से धन का लालच दिया पर वशिष्ठ उस गाय को देने के लिए किसी प्रकार तैयार न हुए। इस पर विश्वामित्र को बहुत क्रोध आया। मेरी एक छोटी-सी बात भी यह ब्राह्मण नहीं मानता। यह मेरी शक्ति को नहीं जानता और मेरा तिरस्कार करता है। उन्होंने सिपाहियों को बुलाकर आज्ञा दी कि जबरदस्ती इस गाय को खोलकर ले चलो। नौकर आज्ञा पालन करने लगे।‌ वशिष्ठ साधारण व्यक्ति न थे। उन्होंने कुटी से बाहर निकलकर निर्भयता की दृष्टि से सबकी ओर देखा। अकारण मेरी गाय लेने का साहस किसमें है, वह जरा आगे तो आए। यद्यपि उनके पास अस्त्र-शस्त्र न थे, अहिंसक थे तो भी उनका आत्मतेज प्रस्फुटित हो रहा था। विश्वामित्र विचारने लगे कि पारलौकिक मैं इतना पराक्रमी राजा, एक ब्राह्मण के सम्मुख हत-प्रभ है, निश्चय ही तनबल, धनबल की अपेक्षा आत्मबल अनेकों गुना शक्ति रखता है। ब्रह्म तेज पर वे इतने मुग्ध हुए कि अनायास ही उनके मुँह से निकल पड़ा ‘धिक् बलं, क्षत्रिय बलं, ब्रह्मतेजो बलंबलम्।’ क्षत्रिय बल तुच्छ है, बल तो ब्रह्म तेज ही है। उसी दिन विश्वामित्र ने संकल्प किया और घोर तपस्या में जुट गए व ब्रह्म तेज को प्राप्त किया)। 


कंडारी   रज्जा   भंडरि

त ढ़ोंगी पंडित  भिखरि

ब्रह्म तेजो बलम् नास्ति

क्षत्रियबलं सर्वत्रभवंति

गोदियालुं         सवारी 

छौ  पैलि   मि   कंडारी

भंडारौ    भंडारी     छौं

कंडारौ बल मि क्य  छौं?

भावार्थ

अमुक पहेली के चौथे अंतिम चरण में अपनी संरचनात्मक एवं गुणात्मक विशेषताओं का बखान करते हुए कहता है कि बल कंडारी राजा भंडारी (भंडारगृह का व्यवस्थापक), तो ढ़ोंगी पंडित भिखारी, तो पहले वाले श्लोक को ही घुमा फिरा कर पोंगा पंडित क्षत्रिय के भंडारगृह से छककर भिक्षा खाना प्राप्त करने के बाद कह उठता है कि बल 'ब्रह्म तेजो बलम् नास्ति, क्षत्रिय बलं सर्वत्र भवंति', यानी पोंगा पंडित का ब्रह्मतेज बलवान नहीं, और क्षत्रिय बल सर्वत्र विराजमान है। अंत में अमुक पहेली के अनुसार प्रश्नात्मक शैली में कहता और पूछता है कि बल तथाकथित कुल पुरोहित गोदियालों की सवारी, था पहले वह कंडारी (कंधे/कंडे में उठाने‌ वाला वीर क्षत्रिय राजपूत), तो बल भंडारगृह का वह भंडारी (भंडार/भंडारे का व्यवस्थापक) है, तो बताओ कि कंडार गाँव का बल वह क्या है?

जगमोहन सिंह रावत 'जगमोरा'

प्रथम गढ़गीतिकाव्य पजलकार

मोबाइल नंबर-9810762253


नोट:- पजल का उत्तर एक शातिर चित्तचोर की तरह अपनी ओपन निशानदेही के चैलेंज के साथ छंदबद्ध स्वरूप पजल में ही अंतर्निहित तौर पर छिपा हुआ होता है

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